“गौतम बुद्ध की जीवनी” (Biography of Gautam Buddha in Hindi)

गौतम बुद्ध  अपने विचारो और बुद्धि से लोगो के नया पथ दिखाने वाले महापुरुष थे. वह भारत के महान दार्शनिक, वैज्ञानिक, धर्मगुरु, एक महान समाज सुधारक और बौद्ध धर्म के संस्थापक थे. उनका बचपन का  का नाम सिद्धार्थ था. उन्होंने अपनी शादी के बाद, वह नवजात शिशु राहुल और पत्नी यशोधरा को त्यागकर, घर छोड़ कर चले गए। वह संसार को जरा, मरण, दुखों से मुक्ति दिलाने के मार्ग की तलाश एवं सत्य दिव्य ज्ञान खोज में राजपाठ छोड़कर जंगल चले गए। वर्षों की कठोर साधना के बाद, बोध गया (बिहार) में बोधि वृक्ष के नीचे उन्हें ज्ञान की प्राप्ति हुई और वे सिद्धार्थ गौतम से बुद्ध बन गए। 80 वर्ष की उम्र तक, वह अपने धर्म का संस्कृत के बजाय उस समय की सीधी सरल लोकभाषा पाली में प्रचार करते रहे। भगवान बुद्ध ने लोगों को मध्यम मार्ग का उपदेश किया। उन्होंने दुःख, उसके कारण और निवारण के लिए अष्टांगिक मार्ग सुझाया। उनका मानना था की ना आत्मा है ना परमात्मा है चेतना ही स्वयं को जाने की कोशिश करने पर स्वयं को आत्मा रूप में प्रति होती है और जो परमात्मा है वहां मनुष्य को संसार में एक निश्चित पहचान देने के लिए मनुष्य की परिकल्पना है। आज करीब 190 करोड़ बौद्ध धर्म के अनुयायी हैं और बौद्ध धर्म के अनुयायी लोगो की संख्या विश्व में 25% हैं. जिसमे चीन, जापान, वियतनाम, थाईलेंड, मंगोलिया, कंबोडिया, भूटान, साउथ कोरिया, होंग -कोंग, सिंगापूर, भारत, मलेशिया, नेपाल, इंडोनेशिया, अमेरिका और श्रीलंका शामिल है.

जीवन यात्रा:-

गौतम बुद्ध का जन्म 563 ईसा पूर्व के समय कपिलवस्तु के निकट लुम्बिनी, नेपाल में हुआ था. उनकी माता का नाम महामाया देवी था वह कपिलवस्तु की महारानी थी। उनके अपने नैहर देवदह जाते हुए रास्ते में प्रसव पीड़ा हुई और वहीं उन्होंने एक बालक को जन्म दिया। उस शिशु का नाम सिद्धार्थ रखा गया. जिसका अर्थ है “वह जो सिद्धी प्राप्ति के लिए जन्मा हो”।लेकिन बालक के जन्म देने के बाद 7 दिन के अंदर माया देवी की मृत्यु हो गयी थी. इसलिए सिद्धार्थ का पालन पोषण उनकी मौसी और शुद्दोधन की दूसरी रानी महाप्रजावती (गौतमी)ने किया। सिद्धार्थ का जन्म गौतम गोत्र में होने के कारण वह गौतम भी कहलाए। उनके पिता क्षत्रिय राजा शुद्धोधन थे। उनके पिता शुद्दोधन ने पांचवें दिन एक नामकरण समारोह आयोजित किया और आठ ब्राह्मण विद्वानों को भविष्य पढ़ने के लिए आमंत्रित किया। सभी ने एक सी दोहरी भविष्यवाणी की, कि बच्चा या तो एक महान राजा या एक महान पवित्र आदमी बनेगा। सिद्धार्थ का मन करुणा और दया का स्रोत था। खेल में भी सिद्धार्थ को खुद हार जाना पसंद था क्योंकि किसी को हराना और किसी का दुःखी होना उससे नहीं देखा जाता था। सिद्धार्थ ने चचेरे भाई देवदत्त द्वारा तीर से घायल किए गए हंस की सहायता की और उसके प्राणों की रक्षा की।

सिद्धार्थ ने गुरु विश्वामित्र के पास वेद और उपनिषद्‌ की शिक्षा ली और साथ ही उन्होंने राजकाज और युद्ध-विद्या कुश्ती, घुड़दौड़, तीर-कमान, रथ हाँकन की भी शिक्षा पूर्ण की। सोलह वर्ष की उम्र में सिद्धार्थ का विवाह कन्या यशोधरा के साथ हुआ। वैभवशाली और समस्त भोगों से युक्त महल में, वह यशोधरा के साथ रहने लगे जहाँ उनके पुत्र राहुल का जन्म हुआ।लेकिन विवाह के बाद उनका मन वैराग्य में चला और सम्यक सुख-शांति के लिए उन्होंने अपने परिवार का त्याग कर दिया। उनके पिता राजा शुद्धोधन ने चिंतित होकर सिद्धार्थ के लिए भोग-विलास का भरपूर प्रबंध कर दिया। तीन ऋतुओं के लायक तीन सुंदर महल बनवा दिए। वहाँ पर नाच-गान और मनोरंजन की सारी सामग्री जुटा दी गई। दास-दासी उसकी सेवा में रख दिए गए। पर ये सब चीजें सिद्धार्थ को संसार में बाँधकर नहीं रख सकीं। वह अपनी पत्नी यशोधरा, पुत्र राहुल और कपिलवस्तु जैसे राज्य का मोह छोड़कर तपस्या के लिए वन की ओर चल पड़े। वह राजगृह पहुँचे। वहां उन्होंने कठोर तपस्या करना शुरू कर दिया.सिद्धार्थ घूमते-घूमते आलार कालाम और उद्दक रामपुत्र के पास पहुँचे। उनसे योग-साधना सीखी। समाधि लगाना सीखा। पर उससे उसे संतोष नहीं हुआ। वह उरुवेला पहुँचे और वहाँ पर तरह-तरह से तपस्या करने लगे।

उन्होंने शुरू में केवल तिल-चावल खाकर तपस्या शुरू की, बाद में कोई भी आहार लेना बंद कर दिया। शरीर सूखकर काँटा हो गया। छः साल बीत गए तपस्या करते हुए। सिद्धार्थ की तपस्या सफल नहीं हुई। एक दिन कुछ स्त्रियाँ किसी नगर से लौटती हुई निकलीं, वहां सिद्धार्थ तपस्या कर रहे थे। वह स्त्रियाँ  गीत गा  रही थी, उनका एक गीत सिद्धार्थ के कान में पड़ा- ‘वीणा के तारों को ढीला मत छोड़ दो। ढीला छोड़ देने से उनका सुरीला स्वर नहीं निकलेगा। पर तारों को इतना कसो भी मत कि वे टूट जाएँ।’ यह बात सिद्धार्थ को जँच गई। वह मान गये कि नियमित आहार-विहार से ही योग सिद्ध होता है। अति किसी बात की अच्छी नहीं। किसी भी प्राप्ति के लिए मध्यम मार्ग ही ठीक होता है ओर इसके लिए कठोर तपस्या करनी पड़ती है। वैशाखी पूर्णिमा के दिन सिद्धार्थ वटवृक्ष के नीचे ध्यानपूर्वक अपने ध्यान में बैठे थे. गाँव की एक महिला नाम सुजाता का एक पुत्र हुआ था, उस महिला ने अपने पुत्र के लिये उस वटवृक्ष से एक मन्नत मांगी थीं जो मन्नत उसने मांगी थी वो उसे मिल गयी थी और इसी ख़ुशी को पूरा करने के लिये वह महिला एक सोने के थाल में गाय के दूध की खीर भरकर उस वटवृक्ष के पास पहुंची थीं. उस महिला ने बड़े आराम से सिद्धार्थ को खीर भेंट की और कहा जैसे मेरी मनोकामना पूरी हुई उसी तरह आपकी भी हो. उसी रात को ध्यान लगाने पर सिद्धार्थ की एक साधना सफल हो गयी थीं, उसे सच्चा बोध हुआ तभी से सिद्धार्थ बुद्ध कहलाए. जिसे पीपल वृक्ष के नीचे सिद्धार्थ को बोध मिला था वह वृक्ष बोधिवृक्ष कहलाया और गया का सीमावर्ती जगह बोधगया कहलाया.

धर्म-चक्र-प्रवर्तन:-

उन्होंने अपने धर्म का संस्कृत के बजाय उस समय की सीधी सरल लोकभाषा पाली में प्रचार करते रहे। उनके सीधे सरल धर्म की लोकप्रियता तेजी से बढ़ने लगी। चार सप्ताह तक बोधिवृक्ष के नीचे रहकर धर्म के स्वरूप का चिंतन करने के बाद बुद्ध धर्म का उपदेश करने निकल पड़े। आषाढ़ की पूर्णिमा को वह काशी के पास मृगदाव (वर्तमान में सारनाथ) पहुँचे। वहीं पर उन्होंने सर्वप्रथम धर्मोपदेश दिया और प्रथम पाँच मित्रों को अपना अनुयायी बनाया और फिर उन्हें धर्म प्रचार करने के लिये भेज दिया। महाप्रजापती गौतमी (बुद्ध की विमाता)को सर्वप्रथम बौद्ध संघ मे प्रवेश मिला। बुद्ध ने अपना आखिरी भोजन, जिसे उन्होंने कुन्डा नामक एक लोहार से एक भेंट के रूप में प्राप्त किया था, और उसे ग्रहण कर लिया  जिसके कारण वह गंभीर रूप से बीमार पड़ गये। बुद्ध ने अपने शिष्य आनंद को निर्देश दिया कि वह कुन्डा को समझाए कि उसने कोई गलती नहीं की है। उन्होने कहा कि यह भोजन अतुल्य है.

‘बुद्ध पूर्णिमा महोत्सव’ (Buddha Purnima in Hindi)

उपदेश:-

भगवान बुद्ध ने लोगों को मध्यम मार्ग का उपदेश किया। उन्होंने दुःख, उसके कारण और निवारण के लिए अष्टांगिक मार्ग सुझाया। उन्होंने अहिंसा पर बहुत जोर दिया है। उन्होंने यज्ञ और पशु-बलि की निंदा की।महात्मा बुद्ध ने सनातन धरम के कुछ संकल्पनाओं का प्रचार किया, जैसे अग्निहोत्र तथा गायत्री मन्त्र। उन्होंने ध्यान तथा अन्तर्दृष्टि, मध्यमार्ग का अनुसरण, चार आर्य सत्य और अष्टांग मार्ग का उपदेश दिया।

उनका मानना था की –

विज्ञान के विश्व उत्पत्ति विश्व का आकार व जीवन की उत्पत्ति के सिध्दान्त एक कल्पना अनुमान व भ्रम उत्पन्न करने के लिए है ।

विश्व एक खरब वर्षों के कालचक्र में गति करता है और सभी मनुष्यों के एक अरब जन्म होते है इसलिए इस विश्व का भूतकाल भविष्य काल व वर्तमान काल के प्रकृति व मानवीय समाज के परिस्थिति घटनाओं और गतिविधियों पूर्व निर्धारित है जिसे बदला नहीं जा सकता अर्थात या विश्व ना कभी बना है ना अंत होगा इसका ।

विश्व में तीन प्रकार के मनुष्य है अधिकांश मनुष्य सामान्य है जो संसारिक जीवनयापन करने के लिए जन्म लेते है कुछ दुष्ट है जो समाज में अशांति अश्लीलता भष्ट्राचार भेदभाव हिंसा करने के लिए जन्म लेते है और कुछ सज्जन है जो समाज में शांति शालीनता शिष्टाचार भाईचारा अहिंसा फैलाने के लिए जन्म लेते है।

सम्पूर्ण विश्व का बौद्ध होना ____ सम्पूर्ण प्रचीन धर्म सभ्यता व साम्राज्य मनुष्यों की चेतना की परिकल्पना है इसलिए उनके कथा प्रर्थना स्थल व अवशेष है ।

बुद्ध के धर्म प्रचार से भिक्षुओं की संख्या बढ़ने लगी। बड़े-बड़े राजा-महाराजा भी उनके शिष्य बनने लगे। शुद्धोधन और राहुल ने भी बौद्ध धर्म की दीक्षा ली। भिक्षुओं की संख्या बहुत बढ़ने पर बौद्ध संघ की स्थापना की गई। बाद में लोगों के आग्रह पर बुद्ध ने स्त्रियों को भी संघ में ले लेने के लिए अनुमति दे दी, यद्यपि इसे उन्होंने उतना अच्छा नहीं माना। भगवान बुद्ध ने ‘बहुजन हिताय’ लोककल्याण के लिए अपने धर्म का देश-विदेश में प्रचार करने के लिए भिक्षुओं को इधर-उधर भेजा। अशोक आदि सम्राटों ने भी विदेशों में बौद्ध धर्म के प्रचार में अपनी अहम्‌ भूमिका निभाई। मौर्यकाल तक आते-आते भारत से निकलकर बौद्ध धर्म चीन, जापान, कोरिया, मंगोलिया, बर्मा, थाईलैंड, हिंद चीन, श्रीलंका आदि में फैल चुका था। इन देशों में बौद्ध धर्म बहुसंख्यक धर्म है।

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