
काशी में एक संत रहते थे. उनके आश्रम में कई शिष्य अध्ययन करते थे. कुछ शिष्यों की शिक्षा पूरी होने पर संत ने उन्हें बुलाकर कहा – अब तुम्हें समाज के कठोर नियमों का पालन करते हुए विनम्रता से समाज की सेवा करनी होगी तो एक शिष्य ने कहा – गुरुदेव हर समय विनम्रता से काम नहीं चलता. संत समझ गए कि अभी भी उसमें अभिमान मौजूद है. थोड़ी देर मौन रहने के बाद उन्होंने कहा – जरा मेरे मुंह के अंदर ध्यान से देखकर बताओ कि मेरे मुंह में अब कितने दांत शेष रह गए हैं. बारी बारी से सभी शिष्यों ने संत का मुंह देखा और एक साथ बोले आपके सभी दांत टूट चुके है. संत ने पूछा – जीभ है कि नहीं? शिष्यों ने समझा कि गुरु जी मजाक कर रहे हैं और बोले उसे देखने की जरूरत नहीं है. जीभ अंत तक साथ रहती है. संत ने कहा यह अजीब बात है. जीभ जन्म से मृत्यु तक साथ रहती है और जो दांत बाद में आते हैं वह पहले ही छोड़ जाते हैं जबकि उन्हें बाद में जाना चाहिए. आखिर ऐसा क्यों होता है? किसी ने बोला यह तो सृष्टि का नियम है. संत ने कहा – “नहीं, शिष्य इसका जवाब इतना सरल भी नहीं है जितना तुम समझ रहे हो”.
जीभ इसलिए नहीं टूटती उसमें लचक है. वह विनम्र होकर अंदर रहती है. उसमें किसी तरह का अहंकार नहीं है. उसमे विनम्रता से सब कुछ सहने की शक्ति है. इसलिए वह हमारा हमेशा साथ देती है. जबकि दांत बहुत कठोर होते हैं. उन्हें अपनी कठोरता पर अभिमान होता है. वह जानते हैं कि उनके कारण ही इंसान की खूबसूरती बढ़ती है इसलिए वे बहुत ही कठोर होते हैं. उनका यही अभिमान और कठोरता उनकी बर्बादी का कारण बनते हैं. इसलिए तुम्हे यदि समाज की सेवा गरिमा के साथ करनी है तो जीभ की तरह नम्र बनकर नियमों का पालन करो. विनम्रता ही हमें जानवरों से अलग करता है. बस इस बात को ध्यान रखें कि हमारी विनम्रता हमारी कायरता ना समझी जाये.
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